उत्तराखंड की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विरासत का प्रतीक हरेला पर्व आज पूरे राज्य में पारंपरिक उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया गया। सावन संक्रांति पर मनाया जाने वाला यह पर्व न केवल वर्षा ऋतु के आगमन का संकेत देता है, बल्कि यह उत्तराखंड की कृषक संस्कृति, पारंपरिक जीवनशैली और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता को भी दर्शाता है।
हरेला का शाब्दिक अर्थ “हरियाली” है, और इस दिन लोग अपने घरों में कई दिन पहले बोए गए विशेष अनाज (गेहूं, जौ, धान आदि) के हरे अंकुरित पौधों (हरेला) को सिर पर रखकर एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं। इस पर्व का उद्देश्य प्रकृति के साथ सामंजस्य और कृषि आधारित संस्कृति को सम्मान देना है।
ग्रामीण क्षेत्रों में हरेला पर्व का विशेष महत्व है, जहां किसान अपने खेतों में हरियाली और समृद्धि की कामना के साथ वृक्षारोपण करते हैं। पर्व के दिन लोग पीपल, बड़, तुलसी, नीम जैसे पारंपरिक और औषधीय पौधों का रोपण करते हैं। वहीं, शहरी क्षेत्रों में भी स्कूलों, कॉलेजों, सामाजिक संस्थाओं और वन विभाग के सहयोग से वृक्षारोपण, रैलियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।
इस अवसर पर बच्चों ने लोकगीतों और लोकनृत्यों की प्रस्तुति दी, वहीं बुजुर्गों ने पारंपरिक रीति-रिवाजों को जीवंत करते हुए युवा पीढ़ी को हरेला पर्व के महत्व से अवगत कराया।
राज्य सरकार और पर्यावरण विभाग द्वारा भी इस दिन को पर्यावरण संरक्षण के अभियान से जोड़ते हुए बड़े पैमाने पर पौधारोपण कार्यक्रम चलाए गए। मुख्यमंत्री सहित कई जनप्रतिनिधियों ने लोगों से पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लेने की अपील की।
हरेला पर्व अब केवल एक पारंपरिक उत्सव नहीं, बल्कि उत्तराखंड की पर्यावरणीय चेतना का प्रतीक बन चुका है।